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Writer's pictureMOBASSHIR AHMAD

लालू तेजस्वी के लिए शहाबुद्दीन परिवार जरुरी या मजबूरी !



मोहम्मद वसीम


रामचरितमानस में तुलसीदास लिखते हैं कि 'का वर्षां जब कृषि सुखाने, समय चूकि पुनि का पछताने' इसी को हिंदी में कहावत बनाकर कहा जाता है कि अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। अब आप सोच रहे होंगे की स्टोरी तो लालू परिवार और शहाबुद्दीन परिवार को लेकर है। फिर मैं इस तरह की बातें क्यों कर रहा हूं। कहावत सुन- सुन कर अगर आप बड़ा विचलित हो गए है तो हम शांत करने का प्रयास कर रहे हैं। कल तक जो लालू परिवार और सिवान का शहाबुद्दीन परिवार एक दूसरे से बात तक करना पसंद नहीं कर रहे थे। एक दूसरे से मिलने के लिए समय तक नहीं निकाल पा रहे थे। लोकसभा चुनाव में हिना साहब को टिकट के लायक नहीं समझ रहे थे। उसी लालू परिवार में अब खुलकर शहाबुद्दीन परिवार का राष्ट्रीय जनता दल अर्थात राजद में स्वागत किया जा रहा है। राबड़ी आवास के दरवाजे हिना साहब और उनकी बेटे ओसामा साहेब के लिए खोल दिये गए हैं। खुद लालू यादव ने माला पहनाकर मां बेटे का स्वागत किया है।

सवाल उठता है कि आखिरकार ऐसा क्यों हुआ सब जानते हैं कि बिहार सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और सीवान के बाहुबली सांसद शहाबुद्दीन के बीच गजब की अंडरस्टैंडिंग थी। दोनों एक दूसरे का सम्मान करते थे। दोनों ने एक दूसरे की मदद से सफलता का परचम लहराया। मंजिल दर मंजिल सीढ़ियां चढ़ते चले गए। फिर आखिरकार क्या हुआ कि दोनों परिवार एक दूसरे का दुश्मन हो गया। हमें लगता है की दुश्मनी की बात करने से पहले दोस्ती की बात की जानी चाहिए। सबसे पहले यह जान लेना चाहिए कि लालू और शहाबुद्दीन की दोस्ती कैसे हुई थी।


शहाबुद्दीन की कहानी....


मोहम्मद शहाबुद्दीन का जन्म 10 मई 1967 को सीवान जिले के प्रतापपुर में हुआ था। शहाबुद्दीन ने पॉलिटिकल साइंस में एमए और पीएचडी किया है। परिवार में पत्नी हिना शहाब के साथ ही एक बेटा और दो बेटियां हैं। कॉलेज के दिनों में ही शहाबुद्दीन ने अपराध की दुनिया में कदम रख दिया था। जानकारों की माने तो शहाबुद्दीन की अपराध की दास्तान महज 19 साल की उम्र में शुरू हो चुका था। उनके ऊपर पहला मामला साल 1986 में दर्ज करवाया गया था। फिर क्या था, जिस तरह से आपराधिक मामले बढ़ रहे थे उसी तरह से शहाबुद्दीन की धमक राजधानी पटना की सियासी गलियारों में पहुंचने लगी थी और धीरे-धीरे लालू यादव शहाबुद्दीन को जानने लगे थे। लालू जान गए थे कि सहाबुद्दीन लंबी रेस का घोड़ा है इसलिए लालू ने उन्हें अपने साथ कर लिया।

जनता दल में आते ही शहाबुद्दीन की ताकत और दबंगई का पुराना हिसाब रंग दिखाने लगा। साल 1990 में शहाबुद्दीन को विधानसभा का टिकट मिला और वह भारी मतों से चुनाव जीत गए। ऐसा लग रहा की मानो सीवान का लड़का पूरे बिहार का लाडला बन चुका था। अब आप इसे या तो दबंगई कह लीजिए या उसका स्टाइल। जो भी शहाबुद्दीन से एक बार मिल लेता था वह उसका कायल हो जाता था।

साल 1995 के विधानसभा चुनाव में लालू यादव ने एक बार फिर भरोसा जताते हुए विधानसभा का टिकट दिया और शहाबुद्दीन दोबारा जीत गए। इस चुनाव के महज कुछ ही महीना के बाद देश में लोकसभा का चुनाव होना था और लालू यादव ने उन्हें पहली बार साल 1996 में लोकसभा का टिकट देकर सांसद चुनाव में उतार दिया। सिवान की जनता ने इस बार भी ना तो शहाबुद्दीन को निराश किया और ना शहाबुद्दीन ने लालू यादव को ।

धीरे-धीरे शहाबुद्दीन पर सत्ता का नशा भी चढ़ गया। कानून को ठेंगे पर रखने वाले शहाबुद्दीन ने अधिकारियों के साथ भी मनमानी करनी शुरू कर दी थी। इस बीच कई अधिकारियों से शहाबुद्दीन की मारपीट की भी खबरें आने लगीं। एक बार तो मामला पुलिस वालों पर गोली चलाने का भी आया। मार्च 2001 में ही जब पुलिस आरजेडी के स्थानीय अध्यक्ष मनोज कुमार पप्पू के खिलाफ एक वारंट लेकर पहुंची तो शहाबुद्दीन ने गिरफ्तारी करने आए अधिकारी संजीव कुमार को थप्पड़ मार दिया और बाकी पुलिसवालों की पिटाई की गई। एक तरह से कहा जाए तो अपराधिक दुनिया में शहाबुद्दीन के नाम खौफ था। यही कारण है कि कोर्ट द्वारा उन्हें सजा सुनाई गई और लंबी अवधि तक जेल में सजा काटने के बाद भी उन्हें बाहर नहीं किया गया और जेल ही उनकी मृत्यु हो गई। अगर हम यहां शहाबुद्दीन की कहानी की लिस्ट बनाने बैठेंगे तो पूरी एक किताब भर जायेगा। हम तो बस इस स्टोरी में आपको वह पक्ष बताने का प्रयास कर रहे हैं जिस कारण लालू परिवार और शहाबुद्दीन परिवार में दरार उत्पन्न हुआ।



इस बात में कोई दो राय नहीं है कि शहाबुद्दीन एक बाहुबली नेता थे। सवाल उठता है बाहुबली होना अगर अपराध होता तो बिहार में कई ऐसे लोग या यूं कहे कई ऐसे नेता हो चुके हैं जो बाहुबली रह चुके हैं और आज भी उनका दबदबा कायम है। जैसे आनंद मोहन, पप्पू यादव, सुनील पांडे, अनंत सिंह आदि... लेकिन उन्हें तो कोई इस तरह से अपराधी या गुंडा नहीं कहता। जवाब साफ है कि शहाबुद्दीन के लिए मुसलमान होना सबसे बड़ा पाप था । और उससे भी बड़ा पाप था स्थिति से समझौता नहीं करने का पागलपन। नहीं तो कौन नहीं जानता है कि भागलपुर जेल से निकलने के बाद अगर उन्होंने नीतीश कुमार को परिस्थितियों का मुख्यमंत्री नहीं कहा होता तो न सिर्फ आज जीवित होते बल्कि राजनीति में एक्टिव भी होते। उनकी पत्नी या बेटा विधायक या सांसद बन चुका होता।


खैर जो होना था सो हो गया। जेल में शहाबुद्दीन के निधन के बाद लालू परिवार ने मानो उनसे नाता तोड़ लिया। साल 2019 में हिना साहब ने राजद की टिकट पर सिवान से लोकसभा का चुनाव लड़ा और वे हार गई। यहीं से असली खेल शुरू हुआ। लालू धीरे-धीरे बीमार हो रहे थे। तेजस्वी को पार्टी का कमान सौंपा जा रहा था। वह पूरे बिहार में घूम-घूम कर अपने स्तर से टीम बना रहे थे। इसी बीच साल 2020 में बिहार विधानसभा का चुनाव आता है। टिकट बटवारे में ना तो हिना साहब से पूछा जाता है और ना ही उनके बेटे को टिकट दिया जाता है। हिना साहब गुस्से में आकर कह देती है की राजद से उनका कोई वास्ता नहीं है।



साल 2024 लोकसभा चुनाव में स्थिति और बिगड़ जाती है। सीवान से राजद वर्तमान विधायक और बिहार विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष अवध बिहारी चौधरी को लोकसभा चुनाव टिकट देने का ऐलान करती है। फिर क्या था हिना साहब के समर्थक काफी गुस्सा गए। बैठकों का दौर शुरू हुआ। अंत में हिना साहब ने फैसला कर लिया कि वे निर्दलीय चुनाव लड़ेंगी। हिना साहब भले चुनाव हार गई लेकिन इस चुनाव में साबित कर दिया कि अब भी जनता शहाबुद्दीन परिवार से प्यार करती है। नहीं तो इतना वोट किसी भी निर्दलीय उम्मीदवार को बहुत कम देखने को मिलता है। यहां एक बात गौर करने लायक है कि 2024 लोकसभा चुनाव में शहाबुद्दीन परिवार द्वारा विरोध किए जाने के कारण पूरे बिहार में अधिकांश लोकसभा सीट पर मुस्लिम समर्थकों ने राजद से मुंह फेर लिया। परिणाम यह हुआ कि लालू यादव और उनकी पार्टी मात्र चार सीट पर जीत दर्ज कर सिमट गई। उनकी छोटी बेटी जिन्होंने लालू यादव को किडनी डोनेट किया वह खुद सारण से चुनाव हार गई । हिना साहब और उनके अपने समर्थकों ने आरजेडी को वोट नहीं देने के लिए सोशल मीडिया में कैंपेन चलाएं।

सवाल उठता है कि लोकसभा चुनाव के बाद अब आखिर ऐसा क्या हुआ कि लालू परिवार के मन में शहाबुद्दीन परिवार के लिए प्रेम उमड़ पड़ा। इसका सबसे बड़ा कारण है प्रशांत किशोर और उनकी पार्टी जनसुरज, जो बिहार में चार सीटों पर हो रही उप चुनाव में लड़ने के लिए ताल ठोक चुकी है और उम्मीदवारों का ऐलान कर चुकी है। प्रशांत किशोर ने जब से पदयात्रा शुरू की थी और जैसे ही उन्होंने पॉलीटिकल पार्टी बनाने का ऐलान किया उसके बाद से ही दिखने लगा था कि मुसलमान समाज का एक बड़ा वर्ग प्रशांत किशोर की ओर शिफ्ट कर रहा है। लालू जानते हैं कि अगर इस परिस्थिति में शहाबुद्दीन के परिवार को अपने साथ नहीं रखा गया तो साल 2025 विधानसभा चुनाव में जितना मुश्किल हो जाएगा। वे हर हाल में अपनी आंखों से तेजस्वी को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। और अपने सपने को साकार करने के लिए उन्होंने पासा फेंक दिया है। गलतियों को सुधारा जा रहा है। नई रणनीतियों पर काम किया जा रहा है। अब देखना दिलचस्प होगा कि आने वाली चुनाव में शहाबुद्दीन परिवार से लालू परिवार को कितना लाभ मिल पाता है। बहरहाल पटना राजद ऑफिस के बाहर मुसलमान समाज की शिक्षित युवा वर्ग ने यह कहना शुरू कर दिया है कि चलो कम से कम अब तो ऊंट आया पहाड़ के नीचे ।


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