● मुरली मनोहर श्रीवास्तव
धर्म कोई हो, बिरादरी कोई हो, जाति कोई हो आज बेटियां बोझ बन गई हैं।
जलेगी कबतक इसी आग में बेटी हिंदुस्तान की...दर-दर दूल्हे की तालाश में बापू उम्र गंवाए, बेबस मां आंसू में डूबे और भाई बिक जाए.....इस गाने के बोल हर उस हकीकत को बयां करती हैं। तिलक, दहेज, प्रताड़ना की शिकार बेटियां, टूट रही बुढ़ापे की लाठियां। धर्म चाहे कोई भी हो, बिरादरी कोई हो, जाति भी कोई हो आज बेटियां बोझ बन गई हैं। इन तमाम मुद्दों पर जमीनी स्तर पर काम करने वाले पूर्व सासंद गुलाम रसूल बलियावी से मुरली मनोहर श्रीवास्तव की दहेजमुक्त भारत बनाने के जैसे मुद्दों पर हुई भेंटवाता के कुछ अंश।
‘हर एक शब्द एक पारिवारिक पृष्ठभूमि को प्रदर्शित करता है। इन मुद्दों को लेकर सड़कों पर उतर चुके हैं पूर्व सांसद गुलाम रसूल बलियावी।‘
समाजिकता में दहेज प्रथा को आप किस नजरिये से देखते हैं?
दहेज भारतीय समाज के लिए अभिशाप है। यह कुप्रथा घुन की तरह समाज को खोखला करती चली जा रही है। इसने नारी जीवन और सामाजिक व्यवस्था को तहस-नहस करके रख दिया है। आगे उन्होंने सवालिया लहजे में ही कहा कि जो इबादत (निकाह) वो तेजारत हो या जो प्राकृतिक (विवाह) थी वो हवस बुझाने का माध्यम बन गया है। सभी वर्ग, धर्म के लोग बेटियों की शादी आज की तारीफ में बेटियों के पिता पर हो रहे एखेरेजात (खर्च) एक बड़ा बोझ बना गया है।
आपके समाज में दहेज प्रथा तो नहीं है, इस पर आप क्या कहेंगे ?
दुर्भाग्य से आजकल दहेज की माँग जबरदस्ती की जाती है दूल्हों के भाव लगते हैं। बुराई की हद यहाँ तक बढ़ गई है कि जो जितना शिक्षित है, समझदार है, उसका भाव उतना ही तेज है। आज डॉक्टर, इंजीनियर का भाव दस-पंद्रह लाख, आई०ए०एस० का चालीस-पचास लाख, प्रोफेसर का आठ-दस लाख ऐसे अनुपढ़ व्यापारी, जो खुद कौड़ी के तीन बिकते हैं, उनका भी भाव कई बार कई लाखों तक जा पहुँचता है। ऐसे में कन्या का पिता कहां मरे ? वह दहेज की मंडी में से योग्यतम वर खरीदने के लिए धन कहाँ से लाए ? बस यहीं से बराई शुरू हो जाती है।
बेटियां इस तरह की शादी से कितनी संतुष्ट हो पाती हैं ?
दहेज-प्रथा के दुष्परिणाम विभिन्न हैं। या तो कन्या के पिता को लाखों का दहेज देने के लिए घूस, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, काला बाजार आदि का सहारा लेना पड़ता है, या उसकी कन्याएँ अयोग्य वरों के मत्थे मढ़ दी जाती हैं। हम रोज समाचार-पत्रों में पढ़ते हैं कि आमुक शहर में कोई युवती रेल के नीचे कट मरी, किसी बहू को ससुराल वालों ने जलाकर मार डाला, किसी ने छत से कूदकर आत्महत्या कर लो। ये सब घिनौने परिणाम दहेज रूपी दैत्य के ही हैं।
बेटियों को ससुराल में किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है?
बेबस और मजबूर जो लोग हैं उनके लिए बेटियों की शादी करने के लिए ब्याज पर कर्ज लेना पड़ता है या फिर जमीन बेचकर बेटियों को बयाहना पड़ता है। इतना कुछ करने के बाद भी लड़के वाले पक्ष को संतुष्टि नहीं मिलती है। बेटी सम्मान के साथ ससुराल में रह सके ऐसा उसके नसीब में कहां रह जाता है। लड़का खुद भी लड़की के घर से मिले सामान और पैसों से संतुष्ट नहीं है, अब आप ही बताएं कि आखिर उस बेटी को ससुराल में कितनी इज्जत मिलेगी।
जब रिश्ते व्यापार का रुप अख्तियार कर ले तो जीवित समाज को खड़ा हो जाना चाहिए। स्मरण रहे कि भारतीय संस्कृति, हिंदुस्तानी सभ्यता में विभिन्नता के बावजूद एकता का प्रतीक रहा है।
दहेज का दुष्परिणाम कितना हावी?
बेटियों को किसी की हों इज्जत गांव कस्बों की होती है। अब जबकि विवाह भवन, बड़े-बड़े रिसोर्ट और हिल का क्षेत्रफल ढूंढ़कर ये कार्य होने लगे हैं। गांव से शहनाईयों की गुंज खत्म सी हो गई है। इसी बहाने गांव के लोग अच्छे खाने से वंचित हो गए हैं। इन सारे कारणों को लेकर बिहार-झारखंड, बंगाल, उड़ीसा में एदार-ए-सरिया के माध्यम से निकाह सस्ता करो ताकि बेटियां रहमत रहें। कम खर्च में शादियां करो ताकि शिक्षा को बढ़ाया जा सके। बारात ऐसी बुलाओं या लेकर जाओ की गरीब की बेटियां अपने बाप की गरीबी को शर्मिंदगी की वजह न बन सके। इसका व्यापक स्तर पर बदलाव दिख भी रहा है। गांव-गांव में मस्जिद कमिटी, सामाजिक कमेटी के सहयोग से डीजे, पटाखा से मुक्त बारातियां अब कुछ हद तक आ रही है और इसके विरुद्ध जाने पर सामाजिक बहिष्कार का मुहिम जोरों पर चलाया जा रहा है। इसके लिए गांव-गांव और देश के विभिन्न हिस्सो में गुलाम रसूल बलियावी लगातार लोगों को जागरुक करने में जुटे हुए हैं।
दहेज को रोकने के लिए समाज में संस्थाएं बनी हैं, युवकों से प्रतिज्ञा-पत्रों पर हस्ताक्षर भी लिए गए हैं, कानून भी बने हैं, परन्तु समस्या ज्यों की त्यों है। सरकार ने ‘दहेज निषेध’ अधिनियम के अंतर्गत दहेज के दोषी को बड़ा दंड देने का विधान रखा है। परन्तु वास्तव में आवश्यकता है- जन-जागृति की। जब तक युवक दहेज का बहिष्कार नहीं करेंगे और युवतियाँ दहेज लोभी युवकों का तिरस्कार नहीं करेंगी। तब तक यह कोढ़ चलता रहेगा। दहेज अपनी शक्ति के अनुसार दिया जाना चाहिए, धाक जमाने के लिए नहीं। दहेज दिया जाना ठीक है, मांगा जाना ठीक नहीं। दहेज को बुराई वहाँ कहा जाता है, जहां मांग होती है। दहेज प्रेम का उपहार है, जबरदस्ती खींच ली जाने वाली संपत्ति नहीं। इन कुरीतियों के खिलाफ मुहिम छेड़ने वाले गुलाम रसूल बलियावी की कोशिश समाज में एक बड़ा परिवर्तन लाएगी ऐसा उनसे बात करके लग रहा है। उनके काम करने की जो शैली है इन तमाम बातों के प्रति लोगों को कदमताल करने के लिए प्रेरित करती है ताकि दहेज किसी भी बेटी के लिए काल न बने, उनका जीवन खुशहाल बस सके।
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